एक मजदूर के दिल की बात

जब हम छोटे थे, तब हर गर्मियों की छुट्टियों में नानी के घर जाया करते थे। मामा और मौसी के सभी बच्चें मिलकर खूब खेलते, मस्ती करते खाने के लिए छीना-झपटी करते, पेड़ पर लगे झूले पर झुलते आदि साथ मे बहुत कुछ सीखते भी थे जैसे कशीदा-कड़ाई, चित्रकारी, फेब्रिक पेंटिंग आदि |

आज मुझे उन सभी बातों के अलावा कुछ ऐसी बात याद आ रही है जिसके बारे मे मैंने कभी भी नहीं सोचा था।

नानी का घर बहुत बड़ा था, छोटे-छोटे बहुत सारे कमरे बने हुये थे जो कि कच्चे मकान थे |

एक बार जब मैं अपनी नानी के घर गई, उस वर्ष उन कच्चे मकानों में से एक मकान को तुड़वाकर कुछ नया बनवाया जा रहा था, तब मैंने देखा कि कुछ मजदूर गर्मी की तपती दोपहरी मे भी काम कर रहे थे, वे लोग नींव खोद रहे थे और पत्थर तोड़ रहे थे| नींव खोदते-खोदते मजदूर कुछ गीत भी गा रहे थे | मुझे वो गीत पूरा तो याद नहीं आ रहा है पर हाँ कुछ धुँधली सी स्मृति जरूर हो रही है शायद उस गीत की एक पंक्ति कुछ इस तरह थी “देख ले काँच मे, सज ले सँवर ले |”

नींव खोदते हुए एक मजदूर बोलता ‘देख ले काँच में , तब दूसरा मजदूर हतौडे की चोट करता हुआ एकदम लयबद्ध तरीके से बोलता ‘सज ले सँवर ले’| ऐसा लगता था जैसे कि म्यूजिक और गाना साथ-साथ बज रहा हो | उन दिनों मैं समझ नहीं पा रही थी कि ये लोग क्या और क्यों गा रहे हैं तब मेरी मम्मी ने मुझे समझाया कि ये लोग अपने काम के बोझ को हल्का करने के लिए काम करते वक्त कुछ-कुछ गाते है जिससे काम भी होता रहे और मनोरंजन भी हो जाए | उस समय कम उम्र के कारण मैं उन मजदूरों के दिल के भाव समझ नहीं पाई थी….

परंतु सालों बाद आज जब मैंने फिर से कुछ मजदूरों को पत्थर तोड़ते देखा तो बचपन के वो दिन याद आगए लेकिन उन दिनों और आज की परिस्थिति मे काफ़ी बदलाव आ गया है | आज की नई टेक्नोलॉजी मजदूर भाई भी बखूबी इस्तेमाल कर रहे है, काम करते वक्त मोबाइल में गाने सुनते है |

इससे एक बात पता चली कि जमाना चाहे कितना भी बदल जाए लोगों को काम का बोझ हल्का करने और मन बहलाने के लिए मनोरंजन का कोई न कोई साधन तो चाहिए ही |

मनोरंजन के इन साधनों में से मुझे पुराना तरीका ज्यादा अच्छा लगा। क्योंकि वो लोग अपने पत्थर तोड़ने की आवाज को ही संगीत की तरह प्रयोग करते तथा नए-नए शब्दों के साथ खुद ही अपना कुछ गाना बना लेते और साथ-साथ गाना गाते भी थे| वे लोग खुद ही सिंगर और खुद ही म्यूजिशियन भी होते थे| माथे पर चिंता की एक लकीर नहीं| काम पूरी मेहनत और तन्मयता से करते थे ऐसा लगता था कि वो लोग सिर्फ़ पत्थर नहीं तोड़ रहे बल्कि ऐसा जताते थे कि उनके द्वारा तोड़ा हर पत्थर भगवान का मंदिर बनाने या कोई बड़ा महल बनाने के काम आ रहा हो| मजदूरों की यह साधारण-सी सोच और उनकी धुँधली सी एक याद ने मुझे जीवन का बड़ा-सा सबक सीखा दिया कि काम को यदि सिर्फ़ काम या बोझ की तरह करेंगे तो खुशियाँ कोसों दूर रहेगी, वहीं काम को दिल से मन लगाकर, हर कर्म को प्रभू को अर्पित करके या यह सोचकर करेंगे कि हमारे द्वारा तोडा गया हर पत्थर कोई बड़ी इमारत बनाने में लग रहा है तो ना तो थकान का एहसास होगा ना ही जीवन की फिक्र मेहसूस होगी |

तो अपने हर कर्म को सिर्फ़ पत्थर तोड़ना ना समझकर उस पत्थर से कुछ नए निर्माण की कल्पना करनी चाहिए|

-किरण यादव

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6 responses to “एक मजदूर के दिल की बात”

  1. Smita Kshirsagar Avatar
    Smita Kshirsagar

    Wonderful writing. Keep it up

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  2. Waah Shahpura ki kahani ki yaad aa gayi

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  3. खूब छान 👌👌

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