
कबीर का जीवन परिचय: कबीर का जन्म लगभग 14वीं-15वीं शताब्दी में काशी नामक स्थान में हुआ| ऐसा मना जाता है कि उनका जन्म एक ब्राम्हण परिवार में हुआ परंतु उनका पालन-पोषण एक जुलाहा दम्पति ने किया| महात्मा कबीर सामान्यतः “कबीरदास” नाम से प्रसिद्ध हुये |
कबीरदास या कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनका लेखन सिक्खों के आदि ग्रंथ में भी देखने को मिलता है। वे हिन्दू धर्म व इस्लाम को मानते हुए धर्म एक सर्वोच्च ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने सामाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास की निंदा की और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना अपने दोहे के माध्यम से की| हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हें मस्तमौला कहा।
कबीर अक्सर अलग-अलग स्थानों पर घूमते थे इसलिए इनकी भाषा में कई भाषाओ का मेल है| इनकी भाषा को सधुक्कड़ी एवं पंचमेल खिचड़ी भी कहा जाता है। इनकी भाषा में हिंदी भाषा की सभी बोलियों के शब्द सम्मिलित हैं। राजस्थानी, हरयाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अवधी, ब्रजभाषा के शब्दों की बहुलता है। ऐसा माना जाता है कि रमैनी और सबद में ब्रजभाषा की अधिकता है तो साखी में राजस्थानी व पंजाबी मिली खड़ी बोली की।
कबीर की मुख्य कृतियाँ कबीर साखी और कबीर बीजक है|
१. दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, दुख काहे का होय ।।
कबीर दास जी कहते हैं कि लोग अक्सर जब उनके जीवन में दु:ख आता है तभी परमात्मा को याद करते हैं और सुख में वो अपने शौक मौज में व्यस्त रहते है, अर्थात सुख के समय भगवान को कोई याद नहीं करता। कबीर दास जी का कहना है कि जो सुख में प्रभू को याद करे तो फिर उन्हें किसी प्रकार का दुःख कैसे हो सकता है ।
२. तिनका कबहूँ ना निंदिये, जो पाँवन तले होय ।
कबहूँ उड़ आँखन पड़े, पीर घनेरी होय ।।
कबीरदास का कहना है कि तिनके को भी छोटा नहीं समझना चाहिए चाहे वो आपके पाँव तले हीं क्यूँ न हो क्योंकि यदि वह उड़कर आपकी आँखों में चला जाए तो बहुत तकलीफ देता है। ठीक उसी तरह हमें किसी भी व्यक्ति चाहे वो छोटा ही क्यों ना हो उसकी भी निंदा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि हमें कभी भी किसी की भी जरूरत पड़ सकती है|
३. माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि माला फेरते-फेरते युग बीत गया तब भी मन का कपट दूर नहीं हुआ है । हे मनुष्य ! हाथ में जो माला का मनका है उसे छोड़ दे और अपने मन रूपी मनके को फेर, अर्थात मन के अन्दर के मेल को साफ़ कर।
४. गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय ।।
व्यक्ति बड़ी ही विकट परिस्तिथि में है कि गुरु और भगवान दोनों मेरे सामने खड़े हैं, मैं किसके पाँव पड़ूँ ? क्योंकि दोनों हीं मेरे लिए सम्माननीय हैं| कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु के पैर पहले छूने चाहिए क्योंकि गुरु ने ही गोविंद के दर्शन कराये है।
५. जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ|
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।|
कबीरदास जी का कहना है कि जीवन में लोगों को हमेशा प्रयत्न करते रहना चाहिए जैसे जो लोग मेहनत करते है उन्हें सफलता अवश्य मिलती है| जैसे कोई गोताखोर गहरे पानी में जाता है तो कुछ न कुछ लेकर ही लौटता हैं। लेकिन कुछ लोग गहरे पानी में डूबने के डर से यानी असफल होने के डर से कुछ नहीं करते है और किनारे पर ही बैठे रहते हैं उन्हें सफ़लता मिलने की कोई संभावना नहीं होती|
६.ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।|
कबीरदास जी के अनुसार हमे हमेशा ऐसी मीठी और नम्र बोली बोलनी चाहिए जिससे सभी के मन प्रसन्न हो, हमारी वाणी से स्वयं को भी शीतलता मिले और दूसरों को भी खुश करें|
७. धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर।
अपनी आँखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर
कबीरदास जी कह रहे है कि हमें दान पुण्य और अच्छे कर्म करते रहने चाहिए,क्योंकि दान-धर्म करने से हमारा धन कम नहीं होता है| आप खुद अपनी आँखों से देख लो कि नदी का थोडा पानी उपयोग कर लेने वो ख़तम नहीं होता है वैसे ही धर्म करने से धन नहीं घटता है|
८.बुरा जो देखन मैं देखन चला, बुरा न मिलिया कोय|
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय||
कबीर का कहना है कि इस दुनिया में जब मैं बुराई देखने के लिए गया तब कोई भी बुरा व्यक्ति नहीं मिला, और जब मैंने अपने अन्दर झाँका तब पता चला कि हमसे बूरा कोई नहीं है|
९. साईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाय|
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूख जाय|
कबीरदास जी भगवान् से प्रार्थना कर रहे हैं कि हे प्रभु! मुझे सिर्फ इतना ही दीजिए कि उससे मैं भी भूखा ना रहूँ और मेरे द्वारा समाज की सेवा भी हो जाए|
१०. माटी कहे कुम्भार से, तू क्या रोंदे मोहे।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे।
कबीरदास जी कह रहे हैं कि मिट्टी कुम्भार को कह रही है कि आज तो तू मुझे रौंद रहा है, एकदिन ऐसा भी आएगा कि जब तुझे मिट्टी में मिलना पड़ेगा| इसलिए किसी बात का घमंड नहीं करना चाहिए|
११. कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर।|
कबीरदास जी के अनुसार पीर वहीं होता है जो दूसरो के दुःख को जाने, समझे| जो दूसरों के दुःख को नहीं समझता वह पीड़ा में और भी पीड़ादायक है|
१२.धीरे–धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय|
कबीरदासजी का कहना है कि समय आने पर ही सब कुछ होता है| चाहे माली एकदिन में सौ घड़े सींच देगा तो भी फल तो सही ऋतू आने पर ही लगेंगे इसलिए हमें उचित समय का इंतजार करना चाहिए|
१३. काल करै सो आज कर, आज करें सो अब|
पल में परले होएगा, बहुरि करैगा कब ||
कबीर दास जी कहते हैं कि कल के सारे काम आज कर लो और आज के अभी क्योंकि समय का कोई भरोसा नहीं, पता नहीं कब प्रलय हो जाए | इसलिए शुभ काम को कल पर मत टालो और समय से पहले ही सारे काम निपटा लेने चाहिए|
१४. अति का भला न बोलना अति अ भला ना चूप|
अति का भला ना बरसना, अति की भली न धूप ||
कबीर दास जी का कहना है कि हमें अपनी बात को रखने के लिए बोलना चाहिए पर न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही ज़रूरत से अधिक चुप रहना ही ठीक है | जैसे बहुत अधिक वर्षा होने पर फसल ख़राब हो जाती है वैसे ही बहुत अधिक धुप से फसल सूख भी जाती है| अर्थात कोई भी चीज आवश्यकता के अनुसार ही होनी या करनी चाहिए|
१५. माखी गुड़ में गडि रही, पंख रहे लपटाय |
हाथ मले सर धूने, लालच बुरी बलाय ||
कबीर जी कहते हैं कि लालच का फल कभी भी मीठा नहीं होता है, जैसे- मीठे के लालच में फँस कर मक्खी गुड़ पर बैठ जाती है और मीठा-मीठा रस पीती रहती और धीरे-धीरे उसके पंख गुड के रस से भर जाते है और अंत में उड़ने के लिए वह हाथ मलती है और सर पकड़ लेती है पर वह उड़ नहीं पाती है, ठीक उसी तरह हमे लालच में फँसकर लालच नहीं करना चाहिए |
१६.पोथी पढ़ी–पढ़ी जग मुआ, पंडित भया ना कोई|
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय||
कबीरदास के अनुसार हम चाहे कितना भी ज्ञान अर्जित कर ले महान व्यक्ति नहीं बन सकते| बड़ा व महान वही है जो ढाई अक्षर प्रेम के महत्त्व को जान ले |
१७.माया मरी न मन मरा, मर–मर गए शरीर|
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर||
कबीरदास जी का कहना हैं कि भगवान् से मिलने के लिए हमें पहले अपने मन के लालच, ईर्ष्या, अहम् आदि बुरईयों को मारना होगा तभी प्रभू मिल सकते है नहीं तो जन्म पर जन्म लेते रहो सिर्फ शरीर मरता रहेगा और पुनर्जन्म होता रहेगा|
१८. बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर|
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर||
कबीरदास जी कहते हैं कि खजूर का पेड़ बेशक बहुत बड़ा होता है लेकिन ना तो वो है। किसी को छाया देता है और फल भी बहुत दूर लगते है, जिसे पाना बहुत मुश्किल होता इसी तरह अगर आप किसी का भला नहीं कर पा रहे तो ऐसे बड़े होने से भी कोई फायदा नहीं है।
१९. सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज |
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ||
अगर मैं इस पूरी धरती के बराबर बड़ा कागज बना दूँ और दुनियाँ के सभी वृक्षों की कलम बना लूँ और सातों समुद्रों के बराबर स्याही बना लूँ तो भी गुरु के गुणों को लिखना संभव नहीं है|
२०.निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें |
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ||
कबीरदास जी कहते हैं कि निंदक लोगों को हमेशा अपने पास रखना चाहिए, क्योंकि ऐसे लोग अगर आपके पास रहेंगे तो आपकी बुराइयाँ आपको बताते रहेंगे और आप आसानी से अपनी गलतियाँ सुधार सकते हैं। जैसे साबुन और पानी से सभी वस्तुएँ साफ़ हो जाती है, वैसे ही हमारे स्वभाव को बिना साबुन और पानी से निंदक लोग निर्मल कर सकते है|
-किरण यादव
Leave a Reply